महान व्यक्तित्व क्लास 6 पाठ -1 श्री रामचंद्र
पाठ -1
श्री रामचंद्र
श्री रामचंद्र का व्यक्तित्व ऐसे उच्च मानवीय गुणों से संपन्न था कि आज उनका जीवन आदर्श मनुष्य बनने की प्रेरणा देने वाला अक्षय सोत बना हुआ है। श्री रामचंद्र के जीवन की मुख्य घटनाओं तथा प्रसंगों से उनके चरित्र की श्रेष्ठता का पता चलता है।
अयोध्या के महाराज दशरथ के ये सबसे बड़े पुत्र थे। श्री राम के भाई भरत लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न उनके साथ अत्यधिक प्रेम तथा सम्मानपूर्ण व्यवहार करते थे। भरत की माँ कैकेयी तथा लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माँ सुमित्रा का उन्हें उतना ही स्नेह मिला जितना उन्हें अपनी माँ कौशल्या से मिला। पिता, गुरुजन तथा जनता के सभी वर्गों के साथ राम का व्यवहार बहुत ही मृदुल एवं शिष्ट था। अपने छोटे भाइयों को प्रसन्न करने के लिए ये खेल में स्वयं हारकर उनको विजयी बना देते थे।
ऋषि विश्वामित्र राक्षसों के उपद्रव के कारण आश्रम में यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। आश्रमवासियों की रक्षा और निर्विघ्न यज्ञ करने में सहायता के लिए वे राजा दशरथ के पास आए। ऋषि ने राजा से राम और लक्ष्मण को माँगा। पिता की आज्ञा मानकर राम और लक्ष्मण ऋषि के साथ आश्रम पहुंचे। दोनों राजकुमारों ने अद्भुत साहस तथा शौर्य के साथ आश्रमवासियों की रक्षा की। अत्याचारी राक्षसों का दमन कर उन्होंने आश्रम और उसके आस-पास शांति स्थापित की।
इसी बीच विश्वामित्र को जनकपुर में राजकुमारी सीता के स्वयंवर का समाचार प्राप्त हुआ राजा जनक ने यह शर्त रखी कि शिव के धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ाने वाले के साथ ही सीता का विवाह किया जाएगा। अपने गुरु का आदेश पाकर श्री राम ने शिव-धनुष को उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते ही शिव-धनुष टूट गया।
सीता के साथ विवाह के बाद राम अयोध्या लौटे और उनका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होने लगा। अब राजा दशरथ वृद्ध हो चले थे ये राम का युवराज पद पर अभिषेक कर शासन के भार से मुक्त होना चाहते थे उनकी इच्छानुसार अभिषेक की तैयारी होने लगी तभी दासी मंथरा ने कैकेयी के कान भरे। मंथरा के बहकावे में आकर कैकेयी ने राजा से दो वर माँगे जिनके लिए राजा पहले वचन दे चुके थे। इन बरों का संबंध देवासुर संग्राम की घटना से था। उसमें दशरथ ने देवों के पक्ष में असुरों के विरुद्ध युद्ध किया था। युद्ध स्थल में कैकेयी ने बड़े साहस के साथ राजा की सहायता की थी। इससे प्रसन्न होकर राजा ने कैकेयी को दो वरदान मागने को कहा था। कैकेयी ने उस समय वरदान नहीं मांगा और भविष्य में कभी मांग लेने की बात कही थी।
अब कैकेयी ने राजा को उन्हीं वचनों का स्मरण कराते हुए दो वरदान माँगे। एक वरदान में उसने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य माँगा और दूसरे में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास । राजा बहुत ही दृढ प्रतिज्ञा थे और प्रण के पालन के लिए वे अपने प्राण की भी चिंता नहीं करते थे। अपने प्रिय पुत्र राम को वनवास देने की कल्पना ही उनके लिए अत्यधिक कष्टदायक थी. फिर भी वचन के धनी राजा ने अपना प्रण निभाया। राम के वियोग में दशरथ का जीवित रह पाना कठिन था किंतु उन्होंने प्रण नहीं छोड़ा।
राम पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर सहर्ष वन के लिए चल पडे। उनके साथ सीता और लक्ष्मण ने भी वन की राह पकड़ी। राम की अनुपस्थिति में राजा दशरथ की मृत्यु हो गई। भाई भरत राम को मनाकर अयोध्या वापस लाने के लिए चित्रकूट गए उस अवसर पर भी राम ने पिता की आज्ञा के पालन पर दृढ रहने का संकल्प दोहराया और वनवास की अवधि पूरी होने पर अयोध्या लौटने का आश्वासन दिया। ।
जब वे अयोध्या से वन की ओर जा रहे थे तब नदी पार करते समय उनकी भेंट निषाद राज गुह से हुई। गहरे भाव-विभोर होकर उनका स्वागत किया। रामचंद्र जी ने उनके अपनेपन के भाव को सम्मान दिया और वे गले लगकर उनसे मिले। भीलनी शबरी के आतिथ्य को भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया इन
उदाहरणों से पता चलता है कि छुवा छूत या ऊँच-नीच की भावना से किसी के साथ व्यवहार नहीं करते थे ।
वनवास की अवधि में श्री रामचंद्र को अनेक बार कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। जब वे पंचवटी में कुटी बनाकर रह रहे थे तब लंका के राजा रावण की बहन शूर्पणखा यहाँ आई। रामचंद्र जी को देखकर वह आकृष्ट हुई और उसने उनके साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। रामचंद्र जी विवाहित थे और उनकी पत्नी सीता जी उनके साथ थी। उन्होंने शूर्पणखा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। शूर्पणखा के हठ के कारण लक्ष्मण जी ने उसे दंडित किया तो वह हृदय होकर रावण के पास पहुंची। रावण उसके अपमान से बहुत क्रोधित हुआ।
रावण ने छलपूर्वक सीता जी का अपहरण किया। रामचंद्र जी ने सीता जी की खोज की। हनुमान ने लंका जाकर सीता जी का पता लगाया। रामचंद्र जी ने अंगद को लंका भेजकर शांतिपूर्वक सीता जी को वापस पाने का प्रयास किया किंतु घमंड में चूर रावण ने कोई ध्यान नही दिया। अंत में युदध की स्थिति आ पहुँची। संकट की इस स्थिति में भी रामचंद्र जी ने अयोध्या से कोई सहायता नहीं मांगी। उन्होंने भरत को इस संबंध में कोई समाचार नहीं भेजा। किच्छा के राजा सुग्रीव और अंगद, हनुमान आदि की सहायता से उन्होंने अपनी सेना सैयारा की और अपने बाहुबल से रावण को युद्ध में परास्त किया। यह उनके स्वावलबन तथा आत्मबल का अनुपम उदाहरण है।
रामचंद्र जी ने लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद वहाँ का राज्य रावण के भाई विभीषण को सौप दिया। इससे पहले किष्किंधा के राजा बालि को हराने के बाद उन्होंने यहाँ का राज्य उसके भाई सुग्रीव को सौंप दिया था। यह निर्णय बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्ण और पारदर्शिता पूर्ण था।
सीता जी और लक्ष्मण के साथ रामचंद्र जी अयोध्या लौटे तो जनता ने उनका हार्दिक स्वागत किया। बहुत धूम-धाम से रामचंद्र जी का राज्याभिषेक हुआ उनकी अनुपस्थिति में भरत ने अयोध्या के राज्य को धरोहर की तरह सुरक्षित रखा और शासन का संचालन किया। रामचंद जी ने शासन की उत्तम व्यवस्था की। उन्होंने जनता की सुख-सुविधा का इतना अच्छा प्रबंध किया कि किसी व्यक्ति की कोई कष्ट नहीं था। सब स्वस्थ तथा सुखी थे और आनंदपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।
यदि समाज के सभी वर्गों और व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा करने की उत्तम व्यवस्था हो जाए तो शांति और सुख की स्थिति आ जाती है रामचंद्र जी के राज्य में शासन की ऐसी ही व्यवस्था की गई थी। उत्तम भोजन, आवास तथा रहन सहन, शिक्षा स्वास्थ्य रक्षा, मनोरंजन आदि की सुविधाएं सबको सुलभ थी। फलस्वरूप कोई रोगग्रस्त नहीं होता था सब मन लगाकर अपना-अपना काम करते थे। अन्न, फल, दूध घी आदि का पर्याप्त उत्पादन होता था इसलिए लोगों को किसी प्रकार के अभाव का सामना नहीं करना पड़ता था। लोग आपस में मिल-जुलकर प्रेम-भाव से रहते थे।
रामचंद्र जी के राज्य में जनता को वे सभी सुख-सुविधाएँ सुलभ थीं जिनकी आज के लोक कल्याणकारी राज्य में कामना की जाती है। इसलिए रामराज्य लोक कल्याणकारी राज्य का पर्याय बन गया है। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में रामराज्य का विशद वर्णन किया है महात्मा गांधी भी रामराज्य की उत्तम व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे। इसलिए उन्होंने भारत में रामराज्य की स्थापना का आदर्श सामने
रखा और उसी के लिए जीवन भर प्रयास किया।